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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2678
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी द्वितीय प्रश्नपत्र - साहित्यालोचन

प्रश्न- 'समीक्षा के नये प्रतिमान' अथवा 'साहित्य के नवीन प्रतिमानों को विस्तारपूर्वक समझाइए।

उत्तर -

साहित्य का प्रवाह युगानुरूप धारणाओं, साहित्यिक निष्कर्ष और जीवन-मूल्यों के अपादान ग्रहण करता हुआ गतिमान रहता है। अतः किसी युग के साहित्य के साहित्य को तत्कालीन साहित्यिक धरणा, निष्कर्ष और जीवन-मूल्यों के सन्दर्भ में मूल्यांकित करना उपादेय कहा जा सकता है। किन्तु इसका यह आशय भी नहीं है कि साहित्य के मानदण्ड अस्थिर और परिवर्तनशील होते हैं। वस्तुतः उनके व्यवहार की पद्धति में युगानुकूल संस्कार अत्यन्त आवश्यक हैं। नये साहित्य के साथ नये मान उदित होते हैं। किन्तु कोई भी मान न पूर्ण है, ना सर्वकालीन ही है, और न सार्वभौमिक ही। डॉ. प्रेमशंकर का मत है कि "प्रतिमान अथवा निकष वे साधन हैं, जिन पर हम किसी कृति की परीक्षा करना चाहते हैं। यद्यपि साहित्य कालजयी होता है, फिर भी उसे युग संपृक्ति से इनकार नहीं किया जा सकता। जब युग बदलता है, युगीन जीवन मूल्य बदलते हैं, तब स्थायी प्रतिमानों की बात करना कहाँ तक उचित है? प्राचीन प्रतिमानों पर नये साहित्य की परख कैसे हो सकती है? अरस्तू का काव्यशास्त्र यूनानी नाटकों की दुःखान्त समृद्ध- परम्परा के आधार पर निर्मित हुआ, उसी कसौटी पर क्या सभी कृतियों का परीक्षण हो सकता है? वस्तुतः समीक्षा में अन्तर्निहित सृजनात्मकता ही वह वस्तु है, जो सामाजिक सन्दर्भों में जुड़े साहित्य के शाश्वत सार्वभौम महत्व का उद्घाटन करती है। इस दृष्टि से दक्ष- समीक्षक का महत्व मौलिक-ग्रन्थों के रचयिता से कम नहीं है।

साहित्य का इतिहास इस बात का साक्षी है कि साहित्यकार परम्परागत रूढ़ियों में बँधकर साहित्य रचना नहीं करता। समय के साथ उपमान बिम्ब, प्रतीक बदलते रहते हैं। अज्ञेय ने लिखा भी है -

"अगर मैं तुमको
ललाती साँझ के नभ की तारिका
अब नहीं कहता
--------------------------
तो नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला था कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही
ये उपमान मैले हो गये हैं
देवता इन प्रतीकों से कर गये हैं कूच
"कभी वासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है"

कवि की धारणा है कि जिस प्रकार बर्तन ज्यादा घिस जाने से उसका मुलम्मा छूट जाता है, उसी प्रकार प्रतीक और उपमान भी पुराने होकर अपना मूल्य खो देते हैं। नवीन भावबोध की अभिव्यक्ति के लिये नवीन शिल्पविधि आवश्यक है। ऐसी दशा में नवीन साहित्य का मूल्यांकन पुराने प्रतिमानों से कैसे हो सकता है? प्रश्न का उत्तर देने के क्रम में नवीन प्रतिमानों की तलाश आरम्भ हुई 'नयी समीक्षा' शब्द प्रकाश में आया।

'नयी समीक्षा' का जन्म टी. एस. इलियट की रचनाओं से माना जाता है, जबकि स्वयं इलियट की यह परिबद्धता स्वीकार नहीं है। क्लीन्थ बुक्स का भी कथन है कि 'नयी समीक्षा उपयुक्त नाम नहीं है, क्योंकि उससे साहित्यिक दलबन्दी या 'वाद' का आभास मिलता है तथापि यह शब्द साहित्य में चल रहा है। इसमें रचना सामाजिक तथा जीवनगत सूत्रों को इतना महत्व नहीं दिया जाता, जितना रचना पर दिया जाता है। इनकी मान्यता है कि- 'रचना को रचना के रूप में देखना चाहिए। बिम्ब- विधान, छन्द, टोन आदि संवेदनाओं और वर्ण्य विषय को एकान्विति प्रदान करनी चाहिए और समीक्षक को उस एकान्विति का उद्घाटन करना चाहिए। आई.ए. रिचर्ड्स, टी. ई. हुल्मे, हरबर्ट रीड और फेनेथ बर्क नयी समीक्षा के प्रमुख समर्थकों में हैं।

समीक्षा के नये प्रतिमानों की बात आने पर यह सबसे महत्वपूर्ण बात है कि समीक्षा के प्रतिमान जीवन-निरपेक्ष नहीं हो सकते। उन्हें जीवन से जुड़ा हुआ होना ही चाहिए। निश्चय ही जब नई कृतियाँ नये परिवेश में नयनोन्मीलन करती हैं, तब उन्हें व्याख्यायित करने के लिये पुरानी कसौटी किस प्रकार उपयुक्त हो सकती है। प्राचीन आलोचना का बहुप्रयुक्त एवं चर्चित शब्द 'साधारणीकरण' है। घिसते घिसते यह शब्द आज अपने निश्चित अर्थ में रूढ़ हो गया है। आज उसके स्थान पर, प्रेषणीयता शब्द चल रहा है। आशय यह है कि जो कुछ रचनाकार कहना चाहता है, क्या वह उसे पाठक तक पहुँचा सकता है? प्रेषित कर सकता है? यह 'प्रेषणीयता और 'साधारणीकरण' शब्द भी कभी अपर्याप्त हो सकते हैं, और इनकी जगह नये शब्द की तलाश सम्भव हो सकती है।

साहित्य-समीक्षा के शाश्वत मूल्यों की स्थापना असम्भव है। जहाँ तक समीक्षा का प्रश्न है, हम कभी जाने-अनजाने अपने दैनिक जीवन में इससे गुजरते रहते हैं, किसी सुन्दर पुस्तक को पढ़ते हैं, किसी सुन्दर नाटक अथवा चित्रपट को देख दूसरों से उसकी अच्छाई-बुराई का जिक्र करते हैं। यह मनुष्य मात्र की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, इससे उसकी जिज्ञासा तुष्ट होती है। चूँकि आलोचना मनुष्य की जिज्ञासा की तुष्टि के लिये अत्यन्त आवश्यक है, इसलिये उसके प्रतिमानों का प्रश्न भी बड़ा महत्वपूर्ण बन जाता है। यह प्रश्न सनातन है, प्रत्येक युग के आचार्य इसे पूछते आये हंज और समाधान करते आये हैं। किसी ने रस को प्रधानता दी, किसी ने अलंकार को, किसी ने रीति को मुख्य माना, तो किसी ने ध्वनि को, पर कोई मानदण्ड अन्तिम मानदण्ड न बन सका। यह विचार करने की एक सतत् प्रक्रिया है, युग-धर्म के अनुरूप मानदण्डों का महत्व घटता-बढ़ता रहता है। आज का आलोचक यथार्थपरक दृष्टि, समाज सापेक्ष चिन्तन और परिवेश का साहित्य से अनिवार्य सम्बन्ध स्वीकारता है। अतः उक्त तथ्य आलोचना के तत्व बन जाते हैं। साहित्य का मूलधर्म है सौन्दर्य की सृष्टि। किन्तु आज का समीक्षक सौन्दर्य को महत्व देता हुआ भी जीवन- चेतना को अधिक महत्व दे रहा है। क्योंकि "समकालीन जीवन-चेतना अपनी अभिव्यक्ति में रसमयी ही नहीं होती, वह हमारी बौद्धिक चेतना को जगाती भी है और मन को केवल तुष्ट करने के स्थान पर प्रश्नानुकूल भी करती है।

आज की समीक्षा के तत्वों को समाजशास्त्र और मनोविज्ञान दोनों ही प्रभावित करते हैं। इनकी पृष्ठभूमि में भी समीक्षा तत्व पल्लवित होते हैं, क्योंकि रचनाकार के सर्जन में उक्त तत्व योगदान देते हैं। " चाहे रस हो, चाहे प्रेषणीयता का प्रश्न हो, चाहे आधुनिक बोध हो, चाहे परम्परागत प्रतीतियाँ हों, चाहे शीलता अश्लीलता का सवाल हो, सभी को आज की समीक्षा - सर्जन के मूल प्रश्नों के साथ सम्बद्ध करके देखने का प्रयत्न कर रही है।' नयी समीक्षा के प्रतिमानों पर विचार करते समय एक तथ्य भी विचारणीय है कि आज का समीक्षक भाव और भाषा को अलग- अलग नहीं देखता है। फिर भी जब प्रतिमानों पर विचार करेंगे तो निम्नलिखित आलोचना के प्रतिमान निर्धारित होंगे, जो सदा से मान्य रहे हैं, और आगे भी मान्य रहेंगे -

(1) भाषा - साहित्यकार अपनी भावना, अपने चिन्तन-मनन, आचार-विचार का भाषा के माध्यम से ही मूर्त आकार प्रदान करता है। कवि अपनी अनुभूतियों को यदि सूक्ष्म, सुन्दर और सशक्त रूप में अभिव्यक्ति नहीं देगा तो वे पाठक को आकृष्ट नहीं कर सकेंगी। अतः आलोचना की प्रक्रिया में भी भाषा का सर्वाधिक महत्व है, आलोचक की भाषा ऐसी होनी चाहिए, जो पाठकों को रचनाकार से साक्षात्कार कराती हो। प्रत्येक आलोचक की भाषा उसके चिन्तन-क्रम की सूचना देती है। शुक्ल जी की आलोचना प्रक्रिया समझने के लिए 'संश्लिष्ट चित्रण' 'लोकमंगल' आदि समझना आवश्यक है। हजारी प्रसाद द्विवेदी का प्रिय प्रयोग मानव की जय यात्रा' है, तो अज्ञेय ने 'व्यक्तित्व की खोज' को अपनी आलोचना में स्थान दिया है। यह विशिष्ट प्रयोग आलोचना को समझने में सहायक होते हैं। इस प्रकार कवि, लेखक, कहानीकार और उपन्यासकार में अपनी- अपनी भाषा होती है, उस रचनाकार की भाषा को युग संदर्भ में रखकर ही उसकी आलोचना करनी चाहिए। नये कवियों ने पुराने शब्दों को नयी अर्थवत्ता प्रदान की है। अतः ऐसे कवियों की आलोचना करते समय उस अर्थवत्ता को भी समझना चाहिए। अतः कहा जा सकता है कि 'भाषा' की आलोचना का एक प्रतिमान स्वीकार करना चाहिए।

(2) बिम्ब - आधुनिक काव्य की सूक्ष्म अर्थवत्ता बिम्ब से प्रतिबिम्ब है, क्योंकि 'आज की जटिल, खंडित संवेदनाओं और बोधों को व्यक्त करने के लिये बिम्बों और विशेषतया खंडित बिम्बों और मुक्त साहचर्य की योजना हो रही है। बिम्बों की योजना आज सर्जन की अनिवार्य आवश्यकता है।' अतः बिम्बों का आधुनिक समीक्षा में बहुत अधिक महत्व है। बिम्बों के अनेक रूप हैं, अनेक वर्ग हैं, उनको हृदयगम किये बिना आलोचना सटीक नहीं हो सकती। नयी कविता बिम्ब की दृष्टि से पर्याप्त विवादास्पद, किन्तु समृद्ध है। उसके बिम्ब खंडित और उलझे होकर भी उनमें नवीनता, विविधता और मौलिकता है। आज की आलोचना बिम्बों का मूल्यांकन किये बिना अधूरी ही होगी। अतः बिम्ब भी आलोचना का एक नया प्रतिमान है।

प्रतीक - प्रतीकों का महत्व साहित्य में सदा से रहा है। दैनिक जीवन में भी प्रतीक काव्य और भावनाओं की अभिव्यक्ति के माध्यम रहे हैं। वेदों से लेकर आज तक साहित्य में प्रतीकों से परिपूर्ण है। वस्तुतः मनुष्य मूलतः प्रतीकों के माध्यम से ही सोचता है। अमूर्त चिंतन अधिक विकसित स्तर का लक्षण है, कुछ प्रतीक सार्वभौम होते हैं। जैसे सिंह वीरता का श्वेत रंग पवित्रता का श्रृंगाल कायरता का और लोमड़ी चतुराई का प्रतीक है। यह भी सत्य है कि मनुष्य इनका प्रयोग निरन्तर करता रहा है और भी करेगा, किन्तु देखा यह जा रहा है कि प्रतीकों के अर्थ बदलते रहे हैं। अनेक नूतन प्रतीक जन्म ले रहे हैं, अतः साहित्य का मूल्यांकन करते समय इन प्रतीकों की उपेक्षा संभव नहीं है। आज के युग में उसकी अनिवार्यता अधिक बढ़ गयी है। प्रतीक योजना से कविता दुरूह बनती है, किन्तु वह काव्य के सत्य को व्यक्त करने के लिए कहीं-कहीं अपरिहार्य हो उठती है। अज्ञेय जी के अनुसार, "आत्मनेवद के प्रतीकों का महत्व" निबन्ध में प्रतीक योजना की जीवंत भारतीय काव्य को मुख्य और अन्योक्तियों के सहारे ही अपना प्रभाव उत्पन्न करता है।' इस प्रतीक योजना को भी आज की समीक्षा का एक प्रतिमान मानना चाहिए।

आज की समीक्षा में शिल्प-विषयक अनेक तथ्यों पर गम्भीर चिंतन किया गया है। कविता के सौन्दर्य में छन्द, उपमान, तुक, मात्रा, लय आदि तत्व आलोचना के प्रतिमान रहे हैं, किन्तु आज की समीक्षा इन पर विचार करके भी इन्हें शाश्वत प्रतिमान स्वीकार करने को उत्सुक नहीं है, क्योंकि कविता में कभी-कभी इनमें एक से अधिक तत्वों के न होने पर भी कविता में सौन्दर्य रहता है, पाठक उससे अभिभूत होता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आज की समीक्षा जीवन की चेतना ( यथार्थ- आदर्श) सामाजिकता, परिवेश, प्रेषणीयता आदि तत्व महत्वपूर्ण हैं, जो किसी रचना के मूल्यांकन के आधार पर बनते हैं। दूसरी ओर जब रचना - शिल्प पर विचार करते हैं, तो कहा जा सकता है कि भाषा और भाव गूढ़भाव से संयुक्त है, फिर भी रचना की समीक्षा करते समय भाषा बिम्ब और प्रतीक आलोचना के प्रतिमान स्वीकार्य हैं। इनके विश्लेषण के बिना रचना के साथ न्याय सम्भव नहीं।

 

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- आलोचना को परिभाषित करते हुए उसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन कीजिए।
  2. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  3. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकासक्रम में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  4. प्रश्न- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की आलोचना पद्धति का मूल्याँकन कीजिए।
  5. प्रश्न- डॉ. नगेन्द्र एवं हिन्दी आलोचना पर एक निबन्ध लिखिए।
  6. प्रश्न- नयी आलोचना या नई समीक्षा विषय पर प्रकाश डालिए।
  7. प्रश्न- भारतेन्दुयुगीन आलोचना पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  8. प्रश्न- द्विवेदी युगीन आलोचना पद्धति का वर्णन कीजिए।
  9. प्रश्न- आलोचना के क्षेत्र में काशी नागरी प्रचारिणी सभा के योगदान की समीक्षा कीजिए।
  10. प्रश्न- नन्द दुलारे वाजपेयी के आलोचना ग्रन्थों का वर्णन कीजिए।
  11. प्रश्न- हजारी प्रसाद द्विवेदी के आलोचना साहित्य पर प्रकाश डालिए।
  12. प्रश्न- प्रारम्भिक हिन्दी आलोचना के स्वरूप एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  13. प्रश्न- पाश्चात्य साहित्यलोचन और हिन्दी आलोचना के विषय पर विस्तृत लेख लिखिए।
  14. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  15. प्रश्न- आधुनिक काल पर प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद से क्या तात्पर्य है? उसका उदय किन परिस्थितियों में हुआ?
  17. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  18. प्रश्न- हिन्दी आलोचना पद्धतियों को बताइए। आलोचना के प्रकारों का भी वर्णन कीजिए।
  19. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के अर्थ और स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  20. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख भर कीजिए।
  21. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद के व्यक्तित्ववादी दृष्टिकोण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  22. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद कृत्रिमता से मुक्ति का आग्रही है इस पर विचार करते हुए उसकी सौन्दर्यानुभूति पर टिप्णी लिखिए।
  23. प्रश्न- स्वच्छंदतावादी काव्य कल्पना के प्राचुर्य एवं लोक कल्याण की भावना से युक्त है विचार कीजिए।
  24. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद में 'अभ्दुत तत्त्व' के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए इस कथन कि 'स्वच्छंदतावादी विचारधारा राष्ट्र प्रेम को महत्व देती है' पर अपना मत प्रकट कीजिए।
  25. प्रश्न- स्वच्छंदतावाद यथार्थ जगत से पलायन का आग्रही है तथा स्वः दुःखानुभूति के वर्णन पर बल देता है, विचार कीजिए।
  26. प्रश्न- 'स्वच्छंदतावाद प्रचलित मान्यताओं के प्रति विद्रोह करते हुए आत्माभिव्यक्ति तथा प्रकृति के प्रति अनुराग के चित्रण को महत्व देता है। विचार कीजिए।
  27. प्रश्न- आधुनिक साहित्य में मनोविश्लेषणवाद के योगदान की विवेचना कीजिए।
  28. प्रश्न- कार्लमार्क्स की किस रचना में मार्क्सवाद का जन्म हुआ? उनके द्वारा प्रतिपादित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर एक टिप्पणी लिखिए।
  30. प्रश्न- ऐतिहासिक भौतिकवाद को समझाइए।
  31. प्रश्न- मार्क्स के साहित्य एवं कला सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- साहित्य समीक्षा के सन्दर्भ में मार्क्सवाद की कतिपय सीमाओं का उल्लेख कीजिए।
  33. प्रश्न- साहित्य में मार्क्सवादी दृष्टिकोण पर प्रकाश डालिए।
  34. प्रश्न- मनोविश्लेषणवाद पर एक संक्षिप्त टिप्पणी प्रस्तुत कीजिए।
  35. प्रश्न- मनोविश्लेषवाद की समीक्षा दीजिए।
  36. प्रश्न- समकालीन समीक्षा मनोविश्लेषणवादी समीक्षा से किस प्रकार भिन्न है? स्पष्ट कीजिए।
  37. प्रश्न- मार्क्सवाद की दृष्टिकोण मानवतावादी है इस कथन के आलोक में मार्क्सवाद पर विचार कीजिए?
  38. प्रश्न- मार्क्सवाद का साहित्य के प्रति क्या दृष्टिकण है? इसे स्पष्ट करते हुए शैली उसकी धारणाओं पर प्रकाश डालिए।
  39. प्रश्न- मार्क्सवादी साहित्य के मूल्याँकन का आधार स्पष्ट करते हुए साहित्य की सामाजिक उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
  40. प्रश्न- "साहित्य सामाजिक चेतना का प्रतिफल है" इस कथन पर विचार करते हुए सर्वहारा के प्रति मार्क्सवाद की धारणा पर प्रकाश डालिए।
  41. प्रश्न- मार्क्सवाद सामाजिक यथार्थ को साहित्य का विषय बनाता है इस पर विचार करते हुए काव्य रूप के सम्बन्ध में उसकी धारणा पर प्रकाश डालिए।
  42. प्रश्न- मार्क्सवादी समीक्षा पर टिप्पणी लिखिए।
  43. प्रश्न- कला एवं कलाकार की स्वतंत्रता के सम्बन्ध में मार्क्सवाद की क्या मान्यता है?
  44. प्रश्न- नयी समीक्षा पद्धति पर लेख लिखिए।
  45. प्रश्न- आधुनिक समीक्षा पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  46. प्रश्न- 'समीक्षा के नये प्रतिमान' अथवा 'साहित्य के नवीन प्रतिमानों को विस्तारपूर्वक समझाइए।
  47. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  48. प्रश्न- मार्क्सवादी आलोचकों का ऐतिहासिक आलोचना के प्रति क्या दृष्टिकोण है?
  49. प्रश्न- हिन्दी में ऐतिहासिक आलोचना का आरम्भ कहाँ से हुआ?
  50. प्रश्न- आधुनिककाल में ऐतिहासिक आलोचना की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए उसके विकास क्रम को निरूपित कीजिए।
  51. प्रश्न- ऐतिहासिक आलोचना के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण व व्यवहारिक दृष्टि पर प्रकाश डालिए।
  53. प्रश्न- शुक्लोत्तर हिन्दी आलोचना एवं स्वातन्त्र्योत्तर हिन्दी आलोचना पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  55. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में नन्ददुलारे बाजपेयी के योगदान का मूल्याकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  56. प्रश्न- हिन्दी आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी का हिन्दी आलोचना के विकास में योगदान उनकी कृतियों के आधार पर कीजिए।
  57. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. नगेन्द्र के योगदान का मूल्यांकन उनकी पद्धतियों तथा कृतियों के आधार पर कीजिए।
  58. प्रश्न- हिन्दी आलोचना के विकास में डॉ. रामविलास शर्मा के योगदान बताइए।

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